द केरल स्टोरी: राजनीति से प्रेरित छिछली पटकथा
विपिन कुमार चौधरी
इस आशा के साथ एक सितारा ही इस बेउम्मीद फ़िल्म को देना चाहिए कि आईएसआईएस में गयी लड़कियों व लड़कों और उनकी त्रासदी की असल कहानी किसी दिन सामने आ सके
फ़िल्म शालिनी नाम की एक लड़की की कहानी है। शालिनी केरल के एक कॉलेज में दाखिला लेती है। उसकी एक रूम मेट है आसिफा, जो मुसलमान है। एक है निमा, जो ईसाई है। एक गीतांजलि है जो अपनी धार्मिक पहचान के आधार पर हिन्दू है, लेकिन चूंकि पिता वामपंथी हैं तो वह धर्मांतरण नहीं मानती। अब इनमें आसिफा इन तीनों को कन्वर्ट कराने की साजिशन कोशिश करती है। सफल होती है सिर्फ शालिनी के साथ। शालिनी को एक मुस्लिम से प्यार करवाया जाता है, वो लड़का उसे प्रेग्नेंट करता है और कहता है शादी करनी है तो मुसलमान बनना होगा। शालिनी कन्वर्ट हो जाती है, फिर प्रेमी भाग जाता है। शालिनी की शादी दूसरे मुसलमान लड़के से कराई जाती है। जो उसे अफ़ग़ानिस्तान ले जाता है। फिर आईएसआईएस के कैम्प में बतौर सेक्स स्लेव रखा जाता है। जहां वो भागने में सफल हो जाती है और आखिर में अफ़ग़ानिस्तान की किसी जेल में बंद है।
द केरला स्टोरी के साथ एक दिक्कत है। ये फ़िल्म एक वक्त पर सच्चाई दिखाने का दावा करती है। कहती है ये हिन्दू महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की कहानी है। लेकिन आपको असल दिक्कत तब समझ में आती है जब ये फ़िल्म एक इस्लामोफोबिक सामग्री में तब्दील होती दिखती है। हम इस्लामोफोबिक क्यों कह रहे हैं? क्योंकि फ़िल्म में एक भी मुस्लिम किरदार ऐसा नहीं है जो सहृदय हो। इस फ़िल्म का हरेक मुस्लिम किरदार किसी न किसी साजिश में शामिल है। यह फ़िल्म एक सवाल छोड़ती है कि क्या इस देश या किसी एक भूभाग का हरेक मुस्लिम किसी न किसी साजिश में शामिल है। वहां गैर साजिशन जिंदगी बिताने वाला कोई मुस्लिम मौजूद नहीं है। या कोई ऐसा मुस्लिम मौजूद नहीं है जिसे इस लव जिहाद से कोई दिक्कत हो? ये सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि फ़िल्म इसी बात को दर्ज कराने की बेशर्म और बेवकूफी भरी कोशिश करती है। खानापूरी के लिए एक किरदार पुलिस स्टेशन में दिखाई देता है जो टोपी लगाए पीछे चुप बैठा है। वही किरदार गीतांजलि की लाश को अस्पताल ले जाता दिखता है। लेकिन यही फ्लैश है कि वो चुप है। आप देश की जनता को आतंकवाद पर फ़िल्म बनाकर या किसी धर्म के साथ और किसी धर्म के खिलाफ खड़े देख रहे हैं? पुलिस स्टेशन के जिक्र से एक और सीन जिंदा हो जाता है और ये फ़िल्म किस हद तक राजनैतिक रूप से प्रेरित है, यह कहानी खुलती है। बड़े पुलिसिया अधिकारी के सामने निमा खड़े होकर चीख रही है। सर, हमारे पूर्व सीएम ने कहा है कि कुछ सालों में केरल इस्लामिक स्टेट बन जायेगा। और लाचार सा दिख रहा पुलिस वाला अपनी कार्यवाही के लिए मांगता है सबूत। कहता है कि दो बालिग साथ शादी कर रहे हैं तो इसमें कानून किस तरह कार्यवाही करे। मुस्लिम किरदार के बाद इस फ़िल्म में पुलिस भी इतनी ही है, एक लाचार से सीन तक सीमित। सबूत जैसी वाजिब डिमांड पर निमा जो कहती है, उसका लब्बोलबाव है कि इधर लड़कियों की जिंदगियां खतरे में हैं और आप हमसे सबूत मांग रहे हैं। जैसे ये फ़िल्म ही सबूत के सारे रास्ते बंद करती है। जैसे ये फ़िल्म कहती है कि सबूत न मांगे। ये बात तब और एवीडेंट हो जाती है जब थिएटर से बाहर निकले छात्र कहते हैं कि केरल की डेमोग्राफी बदल रही है, मुझे इंटरनेट से पता चला। जैसे पाताल लोक का ख्यालीराम कह रहा हो ये वेदों में लिखा है, मैंने व्हाट्सएप पर पढ़ा था। और ये फ़िल्म दिमाग में बिठा जाती है कि एक राज्य की पुलिस भी कमजोर है। ये फ़िल्म अभिशप्त है। एक कमजोर और छिछली पटकथा के साथ राजनीति से जुड़े एक और अध्याय में इसका प्रमाण मिलता है। आईएसआईएस के चुंगल से बचकर आयी गीतांजलि अपने पापा से कहती है। पापा आपने मुझे जीवनभर विदेशी (वामपंथी) विचारों के बारे में पढ़ाया। हमारे हिन्दू देवी देवताओं के बारे में पढ़ाते तो शायद ये स्थिति नहीं होती। सिनेमाघर में शोर होने लगता है। जय श्रीराम के नारे लगने लगते हैं। छात्र खूब जोर से हंसने लगते हैं। क्या ये फ़िल्म सन्देश भी देती है कि ऐसा वामपंथी पिताओं की बेटियों के साथ भी हो सकता है? क्या धर्मावलंबी बनना किसी धार्मिक अपराध से बचाव में कारगर है? फिर जब आखिर में शालिनी अफगान पुलिस के सामने बयान दर्ज कराती है। तो पुलिस वाले कहते हैं कि इंडिया भेजने में एक दिक्कत है, कानूनन आप आतंकवादी हैं और भारत सरकार की आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस पॉलिसी है। ऑडिटोरियम में फिर से हल्ला, फिर से खुशी और फिर से जय श्रीराम। अफगान जेल में दाखिल होती शालिनी अपना परिचय देती है, शालिनी..अ हिन्दू..फ्रॉम केरला। फिर से एक सवाल, जिस समय ये फ़िल्म भारत सरकार को आतंकरोधी करार दे रही है, तो क्या ये केरल के लॉ एंड ऑर्डर को कुछ नहीं मानती है? वहां की सरकार क्या आतंकप्रिय या मक्कार सरकार है? पूरी फिल्म असहज करने वाले कोड़ों की आवाज से भी भरी है। कोड़ों की आवाज, पर क्यों? कुछ दृश्य हैं जो बहुत असहज करते हैं। जैसे शालिनी का उसके पति और आईएसआईएस के आतंकियों द्वारा रेप किया जाना। आईएसआईएस के आतंकियों द्वारा सिर कलम किया जाना और हाथ काटे जाना।
ऐसा नहीं है कि हम फ़िल्म की पृष्ठभूमि को नकार रहे हैं, नहीं। लेकिन पृष्ठभूमि अति नाटकीय हो तो त्रासदी छोटी लगने लगती है। जिन लड़कियों पर सच में यह हिंसा नाज़िल हुई है, उनके साथ इतनी नाटकीयता क्या सही है? नहीं। जिन्होंने छोटे छोटे स्लीपर संगठनों का सहारा लेकर आईएसआईएस में भर्ती कराया, क्या उन्हें सही दिखाती है? नहीं। ये फ़िल्म ज्यादा सुगठित तंत्र और केरल से बाहर भी चल रहे कामों को ज्यादा छिछले तरीके से दिखाती है। ज्यादा बनावटी और ज्यादा न्याय से दूर। इस आशा के साथ एक सितारा ही इस बेउम्मीद फ़िल्म को देना चाहिए कि आईएसआईएस में गयी लड़कियों व लड़कों और उनकी त्रासदी की असल कहानी किसी दिन सामने आ सके।