Search
Close this search box.

स्क्रीन चाहिए या बॉडी इमेज?

0

डॉ. एसके शर्मा

'बॉडी इमेज' धारणा का एक हिस्सा है ज‍िसका अर्थ होता है हम अपने शरीर के बारे में कैसा सोचते और महसूस करते हैं। हम अपने शरीर के बारे में जैसा सोचते हैं, उससे हमारे शार‍ीर‍िक और मानस‍िक स्‍वास्‍थ्‍य पर असर पड़ता है।

• युवा रोज 6 से 8 घण्टे स्क्रीन पर खर्च कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर रहते हैं सर्वाधिक सक्रिय, रिसर्च के अनुसार सोशल मीडिया हानिकारक, पारस्परिक संबंधों को समय देना है लाभदायक, आत्म मूल्यांकन, क्षमता, व्यक्तित्व, प्रतिभा, वजन और स्वास्थ्य में नहीं आएगी गिरावट

स्मार्ट फोन हो या टीवी लेकिन युवा प्रतिदिन 6 से 8 घण्टे स्क्रीन पर खर्च कर रहे हैं। इसमें से अधिकांश समय वे सोशल मीडिया या स्मार्ट फोन पर रहते हैं। पारस्परिक संबंधों के लिए उनके पास समय ही नहीं। इसी कारण वे खुद में आत्म मूल्यांकन की समझ को बेहतर नहीं कर पा रहे। उनकी क्षमता, व्यक्तित्व, प्रतिभा, वजन और स्वास्थ्य में गिरावट की भी यही वजह है। कुल मिलाकर उनकी बॉडी इमेज प्रभावित हो रही है। स्नातक छात्रों पर 2 स्तरीय रिसर्च के बाद अमेरिकन साइक्लोजिकल एशोसिएशन (एपीए) द्वारा हाल ही में जारी जर्नल लेख में ये निष्कर्ष सामने आये हैं। रिसर्च में चिल्ड्रन हॉस्पिटल ऑफ ईस्टर्न ओंटारियो रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रमुख लेखक गैरी गोल्डफील्ड (पीएचडी) ने सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों का विस्तार से उल्लेख किया है।

तीन सप्ताह: बॉडी इमेज में सुधार
गैरी गोल्डफील्ड के मुताबिक, किशोरावस्था बॉडी इमेज, खाने के विकार व मानसिक बीमारियों के विकास का नाजुक समय है। सोशल मीडिया हजारों फ़ोटो (जिनमें मशहूर हस्तियों, फैशन, फिटनेस मॉडल आदि) दिखा सकता है। हम जानते हैं कि युवा उन सौंदर्य आदर्शों को आत्मसात करना चाहता है, जोकि असम्भव है। परिणामस्वरूप, वह अपने शरीर को लेकर असंतोष में आ जाते हैं। सोशल मीडिया में कमी के प्रभावों को बेहतर समझने के लिए गोल्डफील्ड व उनकी टीम ने पहले चिंता या अवसाद के शिकार 38 स्नातक छात्रों के साथ एक पायलट अध्ययन किया। कुछ छात्रों को कहा गया कि वे सोशल मीडिया के उपयोग को रोज 60 मिनट से अधिक न करें, जबकि कुछ को उपयोग की पूरी छूट दी। तीन सप्ताह के निष्कर्ष में उन छात्रों की बॉडी इमेज में सुधार देखा गया जिन्होंने सोशल मीडिया का उपयोग रोज 60 मिनट से अधिक नहीं किया था। हालांकि छोटे नमूने के कारण शोधकर्ता लिंग के प्रभाव का सार्थक विश्लेषण करने में असमर्थ रहे।

चार सप्ताह: वजन में भी सुधार
पायलट अध्ययन के विस्तार व लिंग सीमा के विश्लेषण की मांग पर इस बार 17 से 25 आयुवर्ग के 220 स्नातक छात्र-छात्राएं शामिल किए गए। जिनमें 76 फीसदी छात्राएं और 24 फीसदी छात्र थे। पहले हफ्ते सभी को कहा कि वे सामान्य रूप से अपने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करें और इस उपयोग को स्क्रीनटाइम ट्रैकिंग प्रोग्राम से मापा गया। जिसमें सभी से दैनिक स्क्रीनशॉट लिए गए। एक सप्ताह के बाद अगले तीन हफ़्तों के लिए आधे छात्र-छात्राओं को निर्देश दिया कि वे अपने उपयोग को रोज 60 मिनट से कम न करें और शेष के उपयोग को प्रतिबंधित किया गया। इस बीच छात्र-छात्राओं से बॉडी इमेज व वजन से जुड़ी बयानों की एक श्रंखला में जवाब लिए गए। जैसे, “मैं जैसा दिखता हूँ, उससे संतुष्ट हूँ” और “मैं अपने वजन से संतुष्ट हूँ”। इस तरह के जवाब 5 पॉइंट स्केल पर लिए गए जिसमें स्केल 1 पर “कभी नहीं” और स्केल 5 पर “हमेशा” भी अंकित थे। इसके अंत में छात्र-छात्राओं ने एक समान प्रश्नावली भी पूरी की।
तीन हफ़्तों के लिए छात्र-छात्राओं के जिस समूह को अपने सोशल मीडिया उपयोग को प्रतिबंधित करने को कहा गया था, उन्होंने शेष बच्चों की तुलना में 50 फीसदी घटाकर औसतन रोज 78 मिनट कर लिया था। जो उपयोग पहले रोज 188 मिनट का था। अब तक इन्हें कुल 4 हफ्ते पूरे हो गए थे। निष्कर्ष ये आया कि इन बच्चों के बॉडी इमेज और वजन दोनों में महत्वपूर्ण सुधार हुआ। हालांकि लिंग प्रभाव में इस बार भी कोई अंतर नहीं दिखा।

अवधारणा सही साबित हुई, आगे रिसर्च जारी
गोल्डफील्ड ने कहा कि सोशल मीडिया कम करना बॉडी इमेज में सुधार का व्यवहारिक तरीका है। यह तरीका बॉडी इमेज में गड़बड़ी के उपचार का एक घटक माना जाना चाहिए। इस अवधारणा के प्रमाण के लिए ही यह अध्ययन किया गया था। अब गोल्डफील्ड व उनकी टीम इस अध्ययन में जुटी हैं कि सोशल मीडिया के उपयोग में कमी को लंबे समय कैसे कायम रख सकते हैं और उस कमी से और कौन से मनोवैज्ञानिक लाभ हो सकते हैं? (लेखक खुद पीएचडी हैं, उत्तर प्रदेश के एक निजी विश्वविद्यालय में एसिस्टेंट प्रोफेसर हैं और शोधार्थियों का सुपरविजन कर रहे हैं।)

बॉडी इमेज डिस्टर्बेंस का मनोविज्ञानिक नाम डिसमोरफो फोबिया है। ऐसे तो ये किसी भी उम्र में हो सकता है, खासकर महिलाओं को। आजकल स्क्रीन, सोशल मीडिया या फिल्टर कैमरों के कारण किशोरावस्था में ज्यादा हो रहा है। आप इसी से समझ लें कि फिल्टर कैमरा मनचाहा लुक देता है। लेकिन इंसान सामने कुछ और दिखता है। तो फिर किशोर अपने लुक को लेकर असहज होते हैं। यही सब बॉडी इमेज डिस्टर्बेंस के कारण हैं।
डॉ अंतरा गुप्ता, मनोचिकित्सक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *