ख्वाजा हलीम : फकीरी के राजा थे ख्वाजा
• आमजन के लिए दिल दरिया था, उनके दर से कभी कोई जरूरतमंद मायूस नहीं लौटा, 1980 में 21468 वोट लेकर बने थे विधायक, 2000 से 2012 तक रहे एमएलसी, 2005 में रहे उद्योग विकास मंत्री •
बरगद हाउस दोदपुर अलीगढ (उत्तर प्रदेश)। यहां से कभी कोई जरूरतमंद मायूस नहीं लौटा है। सपा के संस्थापक सदस्य व पूर्व कबीना मंत्री ख्वाजा हलीम 1990 के दशक में पैतृक आवास काजीपडा से यहां शिफ्ट हो गए थे। कट्टरवादी हमेशा उनसे दूर रहे, लेकिन आम जनता के लिए उनका दिल दरिया था। ख्वाजा फाउंडेशन, ख्वाजा पब्लिक सर्विस सोसायटी, ख्वाजा इंटरनेशनल स्कूल और ख्वाजा टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में अधिकांश वही छात्र-छात्राएं थीं जो अपने दम पर नहीं पढ़ सकते थे। एएमयू से खुद एमएससी थे, लेक्चरर भी रहे। सांख्यिकी व शोध की बारीक समझ रखते थे। अनिवार्य शिक्षा और सीमित परिवार उनका मूल मंत्र था। घर की जमींदारी थी लेकिन फकीरी के राजा थे ख्वाजा, पांचों वक्त के नमाजी थे। 16 फरवरी 2018 को उनका निधन हो चुका है। तब वे 73 वर्ष के थे। लेकिन यादें अभी शेष हैं।
• 48 साल की राजनीति में विधायक, एमएलसी व मंत्री भी रहे
करीबी बताते हैं कि 1970 दशक के शुरू में अमुवि छात्रसंघ चुनाव लड़कर युवा कांग्रेस में शामिल हो गए थे। कट्टरवादी कभी उन्हें समझ नहीं पाये, लेकिन विधायक बनने की जिद थी। दो बार विधायकी लड़े लेकिन हार गए। आंदोलनों में भी भाग लिया, 1978 व 1979 में अलीगढ व झांसी जेल भी जाना पड़ा। 1980 में मुलायम सिंह यादव ने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण की पार्टी जनता पार्टी (सेक्युलर) से टिकट दिला दी थी। अलीगढ विधानसभा (373) सीट पर 15 प्रत्याशियों में मुकाबला हुआ। 31 मई 1980 को शहर के 138 मतदान केंद्रों पर 59024 वैलिड वोट पड़े। 46.85 फीसदी मतदान हुआ, जिसमें सर्वाधिक 36.37 फीसदी (21468) वोट ख्वाजा हलीम को मिले थे। भाजपा के नेमसिंह चौहान को 3733 वोट से हराकर वह पहली बार विधायक चुने गए। कांग्रेस तीसरे नम्बर पर थी। तबसे मुलायम सिंह यादव के बफादार बने रहे। 1990 में उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। सपा के संस्थापक सदस्य भी बने। वर्ष 2000 और 2006 में दो बार विधान परिषद के लिए चुने गए। एमएलसी रहते 2005 में मुलायम सरकार में औद्योगिक विकास के कैबिनेट मंत्री भी रहे। मंत्री रहते ग्रेटर नोयडा फेस-2, दिल्ली से नोयडा तक यूपी की पहली मेट्रो ट्रेन, नोयडा में कई ओवरब्रिज व यमुना एक्सप्रेसवे भी शुरू कराया था। 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी इन्हें पर्यटन विभाग में सलाकार नियुक्त किया था। तब शेखा झील को पक्षी अभयारण्य घोषित कराया और पर्यटन स्थल बनाने के लिए बजट भी जारी कराया। अक्षरधाम मंदिर को लीज पर जमीन दिलाने, मथुरा के मंदिरों के लिए संसाधन बढ़ाने जैसे कामों में भी बढचकर हिस्सा लिया। बताते हैं कि अपनी 48 साल की राजनीति में वह कांग्रेस, पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जनता दल (सेक्युलर), सपा, वक्फ बोर्ड, हज कमेटी, एएमयू कोर्ट, उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड सहित विधानसभा व विधान परिषद की कमेटी आदि दो दर्जन पदों पर रह चुके हैं। वे संसद भी जाना चाहते थे, यह इच्छा अधूरी रह गयी।
• विधायक बनकर सीएम की बेटी से किया था निकाह
ख्वाजा हलीम का जन्म 28 अगस्त 1944 को हुआ था। दरियादिली व धर्म निरपेक्षता इन्हें परवरिश में मिली। परिवार गांधी जी के समर्थक था। दादा ख्वाजा यूनुस की सासनीगेट (अलीगढ) क्षेत्र में मथुरा रोड(अलीगढ) तक ज़मीदारी थी। यह हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र है। उन्हीं लोगों में पुस्तैनी तालुकात थे। जानकार बताते हैं कि बाद बावनी के चौधरी मोहन सिंह, कजरौठ के राजेन्द्र सिंह (कृषि मंत्री रहे), इनके पिता सौदान सिंह, हैवतपुर के रघुराज सिंहसे बेंसवा के कुंवर परिवार से रोज की बैठकें थी। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और मोहनलाल गौतम जैसी हस्ती भी आती रहीं। जाति-धर्म से उठकर सेवा भाव था। ख्वाजा यूनुस के इकलौते बेटे ख्वाजा एम. मसूद ने इसी परंपरा को बढ़ाया। ख्वाजा हलीम एम.मसूद के तीन बेटों में बीच के हैं। बड़े कमाल ख्वाजा ज़मीदारी देखते थे और छोटे शाहिद ख्वाजा सेवानिवृत आईएएस हैं। हलीम की जिद थी कि विधायक बनने के बाद ही शादी करेंगे। विधायक बनने के बाद 1971 से 1973 तक राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे बरकत उल्ला खान (1973 में हार्ट अटैक से मृत्यु) की इकलौती बेटी नसरीन हलीम से 24 जनवरी 1981 को निकाह किया था। दोनों की 3 संतानें हैं, बेटा ख्वाजा हसन जिब्रान व दो बेटियां रूबी ख्वाजा और ताबिन्दा ख्वाजा। जिब्रान व बड़ी बेटी की शादी हो चुकी हैं। नसरीन आज 68 वर्ष की हैं। नसरीन के पिता पक्ष का जयपुर में पैतृक घर है। जयपुर व अलीगढ दोनों जगह देखरेख करती हैं। जिब्रान ने 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा से टिकट भी मांगी थी।
• जीवनभर बेदाग रही छवि
ख्वाजा हलीम बेदाग छवि के राजनीतिज्ञ थे। दो राजनीतिक घटनाओं के शिकार भी हुए थे। सपा के हल्ला बोल में बाजार बंदी कार्यक्रम में सपाइयों के साथ उन पर भी गल्ला लूटने का आरोप लगा था। जांच में वो आरोप ही बोगस निकले। इसी तरह प्रदर्शन करते कुछ कट्टरवादियों ने हलीम को घेर कर खींचतान कर दी थी, इसमें उनका कुर्ता फट गया था। इसके अलावा 3 वर्ष पूर्व नागरिकता संशोधन बिल के विरुद्ध धरने को फंडिंग के अंदेशे में ख्वाजा हसन जिब्रान को भी नोटिस दिया गया था। इनके अलावा तमाम लोगों पर इन्हीं की जमीन कब्जा लेने के मामले तो देखे गए लेकिन ये परिवार हमेशा बेदाग रहा है। तमिलनाडू की ग्लोबल इकनॉमिक प्रोग्रेस एंड रिसर्च एसोसिएशन ने मरणोपरांत हलीम को भारत रत्न डॉ राधाकृष्णन गोल्ड मेडम अवार्ड से सम्मानित भी किया था।
“राजस्थान से बीसीए के बाद यहीं रह हूँ। यहां आकर पता लगा कि लोग ख्वाजा साहब की बेहद इज्जत करते हैं। मदद की उम्मीद करते हैं। अब्बू की कमी तो पूरी नहीं कर सकता लेकिन जब जैसी जरूरत होगी मैं अपना बेस्ट दूंगा।”
-ख्वाजा हसन जिब्रान
(पूर्व मंत्री ख्वाजा हलीम के बेटे)“मैं हमेशा उनके करीब रहा। स्कूल वगेरा मैं ही देखता था। फीस के कारण कभी किसी बच्चे की पढ़ाई नहीं रुकने दी, चाहे किसी भी धर्म का हो। उनका धर्म इंसानियत था। बहुत नेक इंसान थे।”
-आरबी शर्मा
पूर्व प्रबंधक- ख्वाजा फाउंडेशन